अक्सर रचनाकारों और फिल्म निर्माताओं को ऐसी कहानियाँ आकर्षित करती रही हैं, जिनके जांबाज नायक नामी हैं और जीवित हैं। शहीदों से लेकर डाकुओं तक के जीवन ने कई फार्मूला फिल्म निर्देशकों से लेकर कला निर्देशकों तक को प्रेरित किया है। जब मैंने सुना कि राजस्थान के छोटे से गाँव भटेरी में महिला विकास कार्यक्रम में काम करने वाली 'साथिन' भँवरी देवी के जीवन पर फिल्म का निर्माण हो रहा है, तो मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय नहीं था।
जिस तरह के सनसनीखेज विषयों की तलाश में फिल्म निर्माता रहते हैं, वह सब कुछ इस कहानी में नहीं था। एक ग्रामीण सीधी सादी कार्यकर्ता का जुझारु स्वरूप, बाल विवाह प्रथा, यौन शोषण और प्रताड़ना, सामाजिक बहिष्कार, सामूहिक बलात्कार, जातिप्रथा की कुरीतियाँ, महिला कार्यकर्ताओं का सहयोग, कानूनी दाँव पेंच, भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था, सवर्ण वोट बैंक, राजनेताओं का हस्तक्षेप, उसके पक्ष और विरोध में हजारों की संख्या में धरना और प्रदर्शन अंततः सच्चाई एवं न्याय को धता बताते हुए सेशन कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला और बलात्कारियों की जमानत पर रिहाई। लोकतंत्र में स्त्री की स्थिति पर एक भद्दा मजाक!
किसी भी जीवित व्यक्ति के संघर्ष, प्रताड़ना या जिजीविषा पर फीचर फिल्म बनाना न सिर्फ जोखिम से भरा काम है, जो विवादों को आमंत्रित करता है बल्कि फिल्म निर्माता को एक अतिरिक्त जिम्मेदारी से भी भर देता है ताकि उस फिल्म के चरित्र को दर्शकों की पूरी सहानुभूति और संवेदना मिल सके। फूलन देवी पर बनी फिल्म 'बैंडिट क्वीन' सारे विवादों और व्यावसायिकता के बावजूद एक संवेदनशील फिल्म थी, जिसने एक डकैत औरत के प्रति दर्शकों में भरपूर सहानुभूति अर्जित की। यह फिल्म की ही कूवत थी कि न सिर्फ उस पर चल रहे कुछ मुकदमों को वापस लिया गया, उसे चुनाव लड़ने की अनुमति भी दी गई। फूलन देवी के चुनाव जीतकर विधायक बनने में शेखर कपूर की फिल्म का बहुत बड़ा योगदान था।
तुलना की कोई गुँजाइश न होते हुए भी राजस्थान के भटेरी गाँव की भँवरी देवी को अगर फूलन के चरित्र के समानांतर रखकर देखें तो भँवरी फूलन के चरित्र का आदर्शवादी संस्करण है, फूलन के सभी नकारात्मक पक्ष यहाँ अनुपस्थित हैं। फूलन ने कानून को अपनी बंदूक की नोक पर रखा और राजनेता बन बैठी (भारतीय राजनीति के श़ुद्ध अपराधीकरण का संदेश बहुत स्पष्ट है) भँवरी ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तो कोर्ट के कटघरे से वह न सिर्फ अपमानित होकर लौटी और उसका सामाजिक बहिष्कार किया गया बल्कि बलात्कारियों को भारतीय संस्कृति का हवाला देकर बाइज्जत बरी किया गया और सात हजार की भीड़ के बीच फूलमालाओं से स्टेज पर उन्हें सम्मानित किया गया। बैंडिट क्वीन फूलन ने फिल्म की ऑस्कर में एंट्री रुकवाकर निर्माता निर्देशक से बीसेक लाख वसूल कर लिए, भँवरी देवी को आज 25 सितंबर 2002 तक 'बवंडर' के फिल्म निर्माता की ओर से एक फूटी कौड़ी नहीं मिली है। हाँ, मिला है सिर्फ शगुन का एक सौ एक रुपया जो फिल्म बनने से पहले या फौरन बाद उससे राखी बंधवाकर फोटो खिंचवाते हुए फिल्म के निर्माता निर्देशक ने उसकी हथेली पर रख दिया था और जिस फोटो को बाद में फिल्म को प्रोमोट करने के लिए, पब्लिसिटी के तहत, प्रचारित किया गया।
21 नवंबर 2001 को 'बवंडर' फिल्म रिलीज हुई थी, उसके साथ ही फिल्म निर्देशक श्री जगमोहन मूंदड़ा के कई साक्षात्कार अखबारों में आए थे कि भँवरी देवी को उन्होंने तीन हजार पाउंड दिए हैं और वह उसे जमीन लेकर दे रहे हैं जिसके लिए वे ढ़ाई हजार डॉलर और उसे देंगे। यह जानना संभवतः अविश्वसनीय हो कि भँवरी को अब तक फिल्म निर्देशक ने अपनी ओर से एक डॉलर भी नहीं दिया है। यहाँ तक कि लंदन में फिल्म की स्क्रीनिंग के बाद लंदन वीमेंस ग्रूप ने भँवरी देवी के नाम जो तीन हजार पाउंड का चेक दिया था, वह भी फिल्म के निर्माता निर्देशक ने अपने एक मुंबईवासी मित्र के साथ भँवरी के नाम जयपुर के एक बैंक में संयुक्त खाते में डलवा दिया जिसकी पास बुक और चेक बुक भी उनके ही पास है और उनके अनुसार 'यह खाता मेरी देख-रेख में खोला गया है' और उनके बिना वह उसमें से पैसा नहीं निकाल सकती। अब वह मित्र उस राशि पर कुंडली मारे बैठे हैं। मैंने जयपुर जाने से पहले उन्हें फोन कर अपना परिचय दिया और भँवरी के खाते की बात की तो वह बिगड़कर बोले, 'मैं दीवाली के बाद जयपुर जाऊँगा, उससे बोलो तब मेरे पास आए। मैं उसके बाप का नौकर नहीं हूँ और आप पत्रकार लोग तो मुझे फोन करो मत। मैंने जगमोहन से बात की है, वह कहता है, मैं किसी सुधा को नहीं जानता।'
'मैं अपनी जड़ों में लौटना चाहता हूँ। आय बिलांग टु राजस्थान और मैं चाहता हूँ कि कुछ मीनिंगफुल सिनेमा बनाऊँ। मैंने बहुत फिल्में बनाईं, बहुत पैसा भी कमाया पर अब मैं पैसे के लिए नहीं, अपने मन के संतोष के लिए काम करना चाहता हूँ। मैं बहुत बड़ा रिस्क ले रहा हूँ। हो सकता है, फिल्म बिल्कुल न चले और मेरा सारा पैसा पानी में जाए पर मैं चाहता हूँ कि मेरी फिल्म के बाद भँवरी को जनता का न्याय मिले।' जगमोहन मूंधड़ा के इस निहायत ईमानदार कंफेशन से लेकर 'मैं किसी सुधा को नहीं जानता' तक का नीचे की ओर जाता हुआ ग्राफ काफी तकलीफदेह अनुभव रहा, जिसने मुझे यही सीख दी कि सिनेमा चाहे वह फार्मूलाबद्ध कमर्शियल सिनेमा हो या कम बजट वाला समानांतर सिनेमा, है वह अंततः खालिस व्यवसाय ही, जिसमें झूठ, बेईमानी, तिकड़म, दोमुंहापन- सभी पैसा या नाम तक पहुँचने की सीढ़ियाँ मात्र हैं।
यह जनवरी 1999 की घटना है। जगमोहन मूंदड़ा जयपुर के सेशन कोर्ट से भँवरी केस की सुनवाई के सारे कागजात निकलवाकर लौटे थे। कोर्ट की मूल सुनवाई की प्रतिलिपियां। इसके अतिरिक्त उन्होंने सभी हिंदी, अंग्रेजी और प्रादेशिक अखबारों से कतरनें भी इकट्ठी की थीं। भँवरी के बारे में मैं भी कई बार अखबारों में लिख चुकी थी, विशेष रूप से जब नवम्बर 1995 में भँवरी के खिलाफ फैसला आया और उसके बाद वह बीजिंग सम्मेलन में भी गई तो 18 जनवरी को विपक्ष के लोग उसे बदनाम करने में कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गए। फैसला उनके पक्ष में था इसलिए स्थानीय विधायक भी गूजरों का वोटबैंक खड़ा करने के लिए कमर कस कर तैयार हो गए। सात हजार लोगों की रैली जयपुर में निकाली गई जिसमें जी भरकर भँवरी के नाम और महिला कार्यकर्ताओं के नाम फूहड़ गालियों का इस्तेमाल किया गया। भँवरी के बारे में कविता श्रीवास्तव की रिपोर्ट्स प्रमिला ताई (प्रमिला दंडवते) के यहाँ आती थीं। सभी महिला संगठनों ने एकजुट होकर 'महिला अत्याचार विरोधी कृति समिति' के बैनर तले आजाद मैदान में जुलूस निकाला... लेकिन नतीजा... कुछ नहीं। निखिल वागले ने भी इस फैसले के बारे में सख्ती से लिखा तो उन पर जज जगपाल सिंह ने मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। चार साल निखिल वागले मुकदमे की तारीखों पर जयपुर अदालत पहुँचते रहे। आखिर बिना सुनवाई हुए मुकदमा रद्द कर दिया गया।
भँवरी से मेरी पहली मुलाकात मुंबई के बिरला क्रीड़ा केंद्र में हुई थी, जहाँ राजस्थानी महिला मंडल के एक कार्यक्रम में किरन बेदी उसे सम्मानित कर रही थीं। एक बेहद दुबली पतली सांवली-सी काया संकोच के साथ कुर्सी पर सिमटी हुई बैठी थी और जब उसे माइक पर कुछ बोलने के लिए कहा गया तो उसने राजस्थानी भाषा में 'साथिन' का एक आह्वान गीत अपनी स्थानीय बोली में बेहद खूबसूरती से गाकर सुना दिया। तब उसके बाल पूरे काले थे। उसके खिलाफ फैसला आने और फिल्म के कारण अपने लोगों के बीच छीछालेदर होने के बाद पिछले सात सालों में उसने कैसा जीवन जिया है, उसके चाँदी से सफेद बाल इसकी बखूबी गवाही देते हैं।
धरने, जुलूस और प्रदर्शनों के इस सारे तामझाम में वह औरत हमेशा पृष्ठभूमि में रही, जिसने कभी नहीं चाहा कि वह इस कदर सुर्खियों में छायी रहे, उस पर नाटक और उपन्यास लिखे जाएँ, फीचर फिल्म और वृतचित्र बनें। उसने सिर्फ यह चाहा कि उसके साथ जो अन्याय हुआ है, उसके अपराधियों को सजा मिले और वह मीडिया की चकाचौंध से परे एक सामान्य जीवन जी सके। यह अब तक उसके लिए संभव नहीं हो पाया है बल्कि फिल्म बनने के बाद उसके लिए जिंदगी और मुश्किल हो गई है। इसके लिए मैं अपने को भी उतना ही दोषी पाती हूँ जितना फिल्म के निर्माता-निर्देशक हैं।
जनवरी 1999 में जब जगमोहन मूंदड़ा ने भँवरी पर फिल्म बनाने का निर्णय लेकर शोध का काम शुरु किया, तब तक भँवरी के केस की फाइल हाईकोर्ट में चार सालों से धूल फांक रही थी। मैंने अपने परिचित शुभचिंतकों के मना करने के बावजूद फिल्म लिखने की हामी भर ली। उन्होंने जगमोहन मूंधडा की 'मानसून' जैसी कुछ सस्ती फॉर्मूला फिल्में देखी थीं, मैंने सिर्फ 'कमला' देखी थी, जो मुझे अच्छी लगी थी। मेरा मानना था कि मैं न लिखूं तो भी फिल्म तो बनेगी ही, लिखनेवालों की कमी नहीं है पर शायद इसे लिखकर मैं भँवरी के साथ ज्यादा न्याय कर पाऊंगी। तब नहीं मालूम था कि मैं कितने बड़े मुगालते में थी। कला फिल्म हो या समानांतर फिल्म, यह माध्यम निर्देशक और निर्माता का है, लेखक का नहीं। लेखक को फिल्म का हिस्सा नहीं बनने दिया जाता!
मार्च, 99 में मैंने फिल्म का संक्षिप्त ड्राफ्ट लिखकर मूंदड़ा को सौंपा। पढ़ने के बाद मुझे जब उस ड्राफ्ट को विस्तार देने को कहा गया तो मुझे लगा कि मेरी लिखी हुई पटकथा को गंभीरता से लिया जा रहा है। जून, 99 में मैं अमेरिका अपनी बेटी के पास गई तो मेरा एक पूरा ब्रीफकेस भँवरी पर खोज की गई रिपोर्टों और लेखों से भरा था। ई-मेल द्वारा मैंने मूंदड़ा से संपर्क बनाए रखा। हर दृश्य के पूरे संवादों के साथ मैंने विस्तृत पटकथा लिखी। इसमें एक साल से ज्यादा समय लग गया। भँवरी की वास्तविक कथा पर बड़ी बारीकी से शोध भी चलता रहा।
फिल्म की पटकथा और संवाद लगभग पूरी होने को थी कि मूंदड़ा ने बताया कि वह एक और लेखक 'हायर' कर रहे हैं। शायद अमेरिकी शब्दावली में लेखक को भी टैक्सी या रिक्शे की तरह हायर किया जाता है। वह लेखक जिन्हें इस साल का नेशनल अवार्ड मिला है और वह मेरी स्क्रिप्ट को इंप्रोवाइज करेंगे। यह मेरे लिए एक धक्का था। इस फिल्म को अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए, अपना पूरा लेखन-पत्रकारिता स्थगित कर, पूरी एकाग्रता से मैं सिर्फ यही एक काम कर रही थी।
इसके बाद उन्होंने मुझे दो तीन दृश्य लिखने के लिए कहा, जिनसे मेरी सहमति नहीं थी। इसमें एक दृश्य था, महिला कार्यकर्ताओं का भी भँवरी को अपने नाम के लिए इस्तेमाल करना। इस दृश्य पर मेरी उनसे खासी बहस हुई। भँवरी का पूरा केस ही महिला संगठनों के सक्रिय सहयोग पर टिका था और उसमें महिला कार्यकर्ताओं को लेकर कुछ ढीले दृश्य डालने से पूरी फिल्म का फोकस बिगड़ने की संभावना थी। मैं यह भूल रही थी कि हर निर्देशक का अपना एक विजन होता है। अगर उसके पास सही विजन नहीं है तो वह फिल्म के किसी न किसी दृश्य के सूराख से झांकेगा ही। फिर भी फिल्म को लिखने में मैंने अपना बहुत सारा वक्त दिया था, इसलिए मैं चाहती थी कि शूटिंग के दौरान भी जब भी उन्हें कहीं संवाद बदलने हों और कोई दृश्य लिखवाना हो तो मैं फैक्स से उन्हें दृश्य भेज सकती हूँ, पर पूरी स्क्रिप्ट हाथ में आ जाने के बाद उन्होंने मुझसे कोई संपर्क नहीं रखा। बाद में पता चला कि संवाद लेखन के लिए उन्होंने किसी और को 'हायर' कर लिया है।
फिल्म को पूरा लिख लेने के बाद मेरे पास एक लंबा चौड़ा सा एग्रीमेंट आया जिसके तहत कई सारे फरमान और प्रतिबंध मुझ पर लागू थे। मैंने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और कह दिया कि फिल्म में मेरा नाम नहीं जाएगा। जगमोहन के बड़े भाई बृजमोहन मूंदड़ा हमारे पुराने परिचित हैं और उन्होंने गोरेगाँव फिल्म सिटी में फिल्म के शो से एक हफ्ता पहले मुझे आश्वस्त कर अनुबंध पर हस्ताक्षर करवा लिए।
फिल्म का प्रिव्यू देखते समय हमारे वरिष्ठ पत्रकार मित्र लाजपत राय और आशा पाणेमंगलोर साथ थे। पूरी फिल्म देख चुकने के बाद मैं बहुत निराश थी- खासतौर पर उन्हीं दृश्यों से जो बेहद 'लाउड' थे और फिल्म की संवेदना को हास्यास्पद बना रहे थे- पुलिस स्टेशन में हवलदार का रेडियो के गाने 'घाघरियो घूमर घालै रै' पर लहंगा हाथ में लेकर नाचने का लंबा उबाऊ दृश्य, भँवरी के लिपे पुते सिनेमाई घर में महिला कार्यकर्ताओं के राज मंदिर में सिनेमा देखने और पानीपूरी खाने के फूहड़ वार्तालाप और महिला थाने में महिला पुलिस के साथ असभ्य और अश्लील संवाद.... इन सबसे ज्यादा मुझे परेशान कर रहा था- दो विदेशी पत्रकारों की आँख से देखी हुई भँवरी की कहानी यानी अंतरराष्ट्रीय दर्शकों के लिए एक टेलरमेड फिल्म। क्या यही था- मूंधड़ा का अपनी जड़ों को लौटना आय वांट टु गेट बैक टु माय रूट्स .... मैं लगभग रोने को थी और मुझे रुआँ सा देखकर लाजपतराय हँस रहे थे और मुझे फिल्म लेखन के गुर सिखा रहे थे कि स्क्रिप्ट लिखो, पैसे लो और भूल जाओ, इस तरह इमोशनल होना हो तो सिर्फ कहानियाँ लिखो जहाँ अपने किरदारों की डोर तुम्हारे हाथ में रहे। मार्क्सवादी सामाजिक कार्यकर्ता आशा पाणेमंगलोर मुझे धीरज बंधा रही थी- सुधा, आम दर्शक की नजर से देखो तो फिल्म बुरी नहीं है। यह अपना संदेश बाकायदा संप्रेषित करती है, हाँ, फिल्म के कुछ कमर्शियल दबाव होते हैं, वे यहाँ भी हैं! मेरी आशाएं और उम्मीदें पूरी तरह ध्वस्त थीं। मैं फिल्म को भँवरी की आँख से देख रही थी और मेरा अपराध बोध मुझे लगातार साल रहा था।
कुछ दिनों के बाद, जब फिल्म रिलीज हुई, मैंने मूंदड़ा से कहा, 'मुझे बतौर पटकथा लेखन जो एक चौथाई बची हुई रकम आप देने वाले थे, वह भँवरी के खाते में डाल दें।' क्या मेरा यह आँ शिक दान मुझे अपराध भाव से मुक्त करने के लिए काफी था
फिल्म विदेशों में रिलीज हो चुकी थी और चर्चित रही थी। फ्रांस के किसी समारोह में नंदिता दास को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का अवॉर्ड भी मिल चुका था। विदेश स्थित कई महिला संगठनों ने उन्हें फिल्म शो के लिए आमंत्रित भी किया। जगमोहन मूंदड़ा फिल्म निर्माण और निर्देशन की अपनी सॉफ्ट पोर्न फिल्ममेकर की इमेज बदलना चाहते थे और वह उसमें सफल रहे थे लेकिन भारत में फिल्म कुछ दिनों सेंसर में फंसी रही।
आखिर 22 अक्टूबर 2001 को जुहू के एक पब में 'बवंडर' का म्यूजिक रिलीज फंक्शन हुआ। विश्वमोहन भट्ट और रेखा अपने खूबसूरत रेशमी लिबासों में तस्वीरें खिंचवा रहे थे। इसके बाद 21 नवंबर को फिल्म का प्रीमियर भी बड़ी धूमधाम से हुआ। सारे अखबार मूंदड़ा और नंदिता दास की प्रेस कांफ्रेंस की तस्वीरों से भरे थे। मैं दोनों ही कार्यक्रमों में नहीं गई। निमंत्रण के खूबसूरत कार्ड की कलात्मकता और नफीस हैंड मेड पेपर मुझे मुँह चिढ़ा रहा था। विश्वमोहन भट्ट का पुरअसर संगीत 'केसरिया बालमा, पधारो म्हारे देस', रीता गांगुली, दीप्ति नवल और नंदिता दास के चरित्रों के अनुकूल उनके अपने स्वर में गायकी भी मुझे सुकून पहुँचाने में नाकाम रही।
मैंने ही 'बैंडिट क्वीन' फिल्म की कलात्मकता की तारीफ में कसीदे पढ़े थे, महिला संगठनों को उनके प्रोटेस्ट पर लताड़ा था और कहा था कि यह फिल्म उस कटे हुए हाथों वाली कलात्मक मूर्ति की तरह है जिसे आर्ट गैलरी में रख दें तो वह कला का उत्कृष्ट नमूना लगती है और खुली नालियों में थूकने वाली जनता के बीच चौराहे पर रख दें तो उसे कपड़ों से ढंकने का मन होता है।... अब मेरी कला को सराहने वाली इंद्रिय को फालिज क्यों मार गया था क्या इसलिए कि भँवरी मेरे लिए हाड़ माँस की जीती जागती, लड़ती औरत थी, जिसे मैं जानती थी और जिसका संघर्ष मेरे मन के बहुत करीब था और फूलन मेरे लिए तृतीय पुरुष थी, एक विषय थी जिस पर बनी हुई फिल्म को मैं तटस्थ होकर देख सकती थी।
निर्देशक मूंदड़ा ने बताया कि उसे विदेश के कई महिला संगठनों ने भँवरी के साथ टॉक देने और फिल्म की स्क्रीनिंग के लिए आमंत्रित किया है। उन्होंने कहा- 'मैंने तो भँवरी को कहा, तू मेरे साथ चल, पूरे यूरोप में घूम आएगी पर उसने मना कर दिया।' मेरे पूछने से पहले ही उन्होंने बताया, 'वह तो आप लोगों से इतना डरती है, कहती है, मैं पैसा लूँगी तो सब कहेंगे, तूने अपने को बेच दिया इसलिए मुझे पैसे मत दो, इनाम देना है तो दे दो इसलिए हमने उसके नाम तीन हजार पाउंड बैंक में डाल दिए।' तीन हजार पाउंड! उसे बैंक में डालने के अलावा और चारा भी क्या था क्योंकि वह एक चेक था जो भँवरी देवी के नाम पर ही दिया गया था, लेकिन अब तक वह बैंक खाते की ही शोभा बढ़ा रहा है क्योंकि मूंदड़ा के मित्र भँवरी से यह भी कह चुके हैं, देख, मैंने तुझे ढ़ाई लाख दिलाए हैं, इसमें से आधा मेरा। मेरी पूछताछ पर मुझे भी फोन पर उन्होंने डपट कर कहा, 'मैंने इतनी मुश्किल से भँवरी को पैसे दिलाए और वह भाव खा रही थी कि मुझे अभी नहीं चाहिए।' जब भँवरी को अपने नाम का चेक ही नहीं मिला-- एक समाजसेवी संस्था के तीन हजार पाउंड तक नहीं तो मेरा मौखिक मेहनताना तो उसे क्या मिलता! मेरी बकाया रकम भी इसी धांधली की भेंट चढ़ गई।
सन् 2002 का आई.आई.टी. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान का 'डिस्ंिटग्विश्ड एल्यूमनस अवॉर्ड' मुंबई के भूतपूर्व छात्र जगमोहन मूंदड़ा को मिला। यह उनके लिए एक उपलब्धि थी। वह बधाई के पात्र हैं कि अंततः वह अपनी सॉफ्टपोर्नो फिल्ममेकर वाली इमेज बदलने में कामयाब रहे। फिल्म मुंबई में पाँच हफ्ते चली यानी आर्थिक दृष्टि से निर्माता निर्देशक नुकसान में नहीं रहे। मैं भी नुकसान में नहीं रही। मेरे खाते में भी एक फिल्म लेखन का नाम जुड़ा। नुकसान में रही तो सिर्फ भँवरी जिसकी कहानी के कंधों पर चढ़कर हमें ये उपलब्धियाँ हासिल हुईं।
(लेखिका प्रख्यात कथाकार एवं स्त्री विमर्शकार हैं)